Tuesday, December 31, 2019

शौक ये उम्रsभर लगाए रहिएमिजाज इश्किया बनाए रहिए बड़ा

शौक ये उम्रsभर लगाए रहिए
मिजाज इश्किया बनाए रहिए 

बड़ा एहसान आपका होगा
हमको सीने से लगाए रहिए

बड़ी बारीक है नज़र उनकी
उनसे कुछ फासले बनाए रहिए

हर कदम फूल खिलेंगे , तय  है 
अपनी ये शोखियां बचाए रहिए

रफ्ता रफ्ता मुकाम तय होंगे
दिल में  बस मंजिले बसाए २हिए

Sunday, August 25, 2019

कारवां ए-तूफां गुजारा कहां है

बड़े दिनों के बाद अफातु भाषा की एक रचना

कारवा ए तूफां गुजारा कहां है
अभी संग ढ़ग से उछाला कहां है

उड़ जाएगें तमाम हमामों के पर्दे
अभी जोश ने जोश पाला कहां है

अभी अपने अहलेअहद में हैं बैठे
औ कोई परचम निकाला कहां है

गुलूकार हम भी    हैं    माहिरे फन
हमें  मौसिकी  ने संभाला कहां   है

ऐ  ग़रदूं  गज़ल  तेरी  है  ये अधूरी
अभी  इश्क   इसमें  डाला कहां है

जब से तुमने राम कहा

जब से तुमने राम कहा , राम हुआ जाता हूं
प्रस्तर था सम्मुख तेरे प्रतिमान हुआ जाता हूं

उजला उजला कह कर, सारी कालिख धो दी
कीचड़ कीचड़ अंगनांई में तुलसी तुलसी बो दी
आलोकित मंदिर कर डाला ज्योतित कर दी कुटिया
जर्जर जीवन अभिलाषा को दे दी एक लकुटिया
दूषित कलुषित अपयश था यशगान हुआ जाता हूं
कामुक था सम्मुख तेरे निष्काम हुआ जाता हूं

जब से तुमने राम कहा , राम हुआ जाता हूं
प्रस्तर था सम्मुख तेरे प्रतिमान हुआ जाता हूं

प्रियवर प्रियवर कह कर मेरे कांटे सभी निकाले
क्रोध घृणा मत्सर नकार के शांत किए सब छाले
नेह प्रीत अभिसिंचित कर द्वेष और क्लेष बहाया
हीन पतित जग जीवन में उत्स और मोद जगाया
गरलताल था ,अमृतसर रसखान हुआ जाता हूं
अरिसुर था सम्मुख तेरे लय धाम हुआ जाता हूं

जब से तुमने राम कहा , राम हुआ जाता हूं
प्रस्तर था सम्मुख तेरे प्रतिमान हुआ जाता हूं

"महामना" जगदीश गुप्त

Wednesday, June 26, 2019

उर्दू एक विशलेषण

खाद्य वैज्ञानिक अन्वीक्षण अनुसंधान करके यह बताते हैं
कि कुछ मिश्रण औषधि बन जाते हैं
किंतु
कुछ मिश्रण घातक विष बन जाते हैं

इस पटल पर भाषा पर  प्रयोग करने वाले वैज्ञानिक हैं
आपने भी भाषा के प्रभावों को अनुभव किया होगा

कुछ  अन्वीक्षण अनुभव मेरे भी हैं
आपके अनुभव में इनका विस्तार या प्रतिकार जो भी हो कृपा कर साझा करेंगें

अखंड भारत के विभाजन के लिए अनेक अध्येता इस्लाम को उत्तर दायी ठहराते हैं
किंतु बांग्लादेश के जन्म का अनुभव इसका खंडन करता है
बांग्लादेश बना क्यों कि उर्दू भाषी बांग्लाभाषी को अपने ऊपर स्वीकार नहीं कर सकते । संवैधानिक रूप से बहुमत में आने के उपरांत भी अपना नेता नहीं मान सके । बांग्ला भाषियों को स्वयं से हीन व निम्न मानने की ग्रंथि उनमें थी ।

अर्थात अपवाद छोड़कर अन्य भाषाओं व भाषियों पर प्रभुत्व की लालसा उर्दूभाषियों में होती है

ऐसा क्यों होता होगा

कुछ कारण ध्यान में आते हैं

उर्दू का अर्थ छावनी है और यह शब्द छावनीमें बोली जाने वाली भाषा के लिए रूढ़ हो गया है।
छावनी युद्ध के लिए निकले सैनिकों के पड़ाव को कहते है
युद्धरत की सैनिक मानसिकता ही उर्दू बोलने वाले की मानसिकता बन जाती है अपवाद छोड़ कर ।

वैसे तो उर्दू एक बोली के रुप में विकसित हुई थी क्यों कि भारत के राज्यो को लूटने आए मूल लुटेरे आक्रमणकारी ' ,सैनिक व सेनापति रेगिस्तानी राज्यों यथा अरबी फारसी या तुर्की भाषाई होते थे । उन्हें आपस में व  भारतीय नागरिको विशेषकर स्थानीय स्तर पर नियोजित गए स्थानीय सैनिकों व सहायकों व दासों से संवाद के लिए प्रयास करने होते थे । इन्हीं प्रयासों में हिंदी वाक्य विन्यास में आक्रमणकारी सैनिक अपनी भाषाओं के शब्द भी प्रयोग करते थे I नियमित उपयोग होने से स्थानीय सेवको व सैनिकों ने यह शब्द सीख लिए।
वे अपने स्वामियों / सेनापतियों को प्रसन्न करने अधिकाधिक शब्द प्रयोग कर उनकी कृपा व पुरूस्कार पाने का प्रयास करते।
आज भी उर्दू रचनाकारों व बोलने  वालों के मन में यह चाटुकारिता का भाव व पुरस्कार का लालच महत्वपूर्ण कारण होता है

शेष ..

भारत में तब भी विशुद्ध अरबी विशुद्ध फारसी व विशुद्ध तुर्की साहित अनेक विदेशी भाषाओ के विद्वान थे । व्यापार व राज्यकी सुरक्षा के लिए यह आवश्यक भी था ।

तू जला दे शौक से ग़रदूं को घर का गम नहीं पर ये वादा कर यहां से रोशनी ले जाएगा तेरे घर चूल्हा जले जलती रहें आंते मेरी मुस्कुरा लूंगा अगर भर पेट तू मुस्काएगा

तू जला दे शौक से ग़रदूं को घर का गम नहीं
पर ये वादा कर यहां से रोशनी ले जाएगा
तेरे घर चूल्हा जले जलती रहें आंते मेरी
मुस्कुरा लूंगा अगर भर पेट तू मुस्काएगा

Thursday, May 16, 2019

रौशनी के दिए हाथों में लिए

रौशनी के दिए
हाथों में लिए
बांटते जाएंगे
प्रेम सुरभित सुमन
सिंहवीरो की है
ये पावन धरा 
मां भारती तुझे
शत शत नमन

हम स्वयं ही बने
धूप भी होम भी
हम स्वयं का करें
आचमन हितवतन
तिल तिल जलें
तेरी पूजा में हम
बांधा तेरे लिए मां
सर पे कफन

दूषणों के लिए
अग्नि का पुंज हैं
भूषणों के लिए
पुष्प के कुंज हैं
निर्मिति के लिए
श्रम के साधन हैं हम
स्वेद सरिताओं से
कर रहे हैं सृजन

मां के श्रृंगार को
मां के उत्कर्ष को
मां के उल्लास को
माता के हर्ष को
हम कटिबद्ध हैं
स्वयं प्रतिब्दह हैं
आत्मआहूतियां दे
कर रहें हैं हवन

भू का मंडल कोई
अंतरिक्ष शून्य हो
हर कहीं भारती का
प्रशस्ति पुण्य हो
दिव्य की चेतना
भव्य आयोजना
मातृभू के लिए
सहेंगें हर तपन

Tuesday, April 9, 2019

सरस नदी सी बहती हो मेरे मन में रहती हो मैं पत्थऱ घाट किनारे का तुम छ्ल छ्ल छूती रहती हो विहगों सी है ऊंची उड़ान कोकिल कंठी सुर मधुर तान विमल नवल तुम धवल कंवल मैं कंटक युति सांवल सेमल तुम शांत सरल मर्यादा में मुझे पल पल सहती रहती हो हिरण्यमयी द्युतिं कांति किरण मोहक मृदुला मधुहास अरूण तुम हो प्रभात की शुभ बेला में काम क्रोध मद मंद-पुंज मै हूं ज्वर का उत्ताप श्रृंग तुम दल -दल झरती रहती हो स्पर्शो की अनुभूति अंतरतम शीतल करती है तुम सुमन कली सी लज्जा में मैं बौराया सा भंवरा हूं संकोच मोच न हो पाया तुम कल कल करती रहती हो महामना जगुप्त अनुमानित सितम्वर1985-2019अप्रेल

सरस नदी सी बहती हो
मेरे मन में रहती हो
मैं पत्थऱ घाट किनारे का
तुम छ्ल छ्ल छूती रहती हो

विहगों सी है ऊंची उड़ान
कोकिल कंठी सुर मधुर तान
विमल नवल तुम धवल कंवल
मैं कंटक युति सांवल सेमल
तुम शांत सरल मर्यादा में
मुझे पल पल सहती रहती हो

हिरण्यमयी द्युतिं कांति किरण
मोहक मृदुला मधुहास अरूण
तुम हो प्रभात की शुभ बेला
में काम क्रोध मद मंद-पुंज
मै हूं ज्वर का उत्ताप श्रृंग
तुम दल -दल झरती रहती हो

रति-स्पर्शो की अनुभूति
अंतरतम शीतल करती है
तुम सुमन कली सी लज्जा में
मैं बौराया सा भंवरा हूं
संकोच मोच न हो पाया
तुम कल कल करती रहती हो

ललित ललक दृष्टित अपलक
तुम कृष्णबिंदु दिक् दैव झलक
तुम संदल वन की मलय पवन
में नगर सभ्यता का उपवन
खोकर मुझमें अपना वैभव
स्व, हल-हल .पीती २हती हो

महामना जगुप्त
अनुमानित सितम्वर1985-2019अप्रेल

Thursday, April 4, 2019

जो मिलना है खुदा से ,खुद से मिलने का तजुर्बा कर किसी मजबूर को महफूज करने का तजुर्वा कर मोहब्बत है तो खुलकर सामने आना जरूरी है किसी आशिक की आहों पे मरने का तजुर्वा कर मुलाकातो के जरिए है जरा सा हौसला तो कर हवा भर ले परो मे और उड़ने का तजुर्वा कर कि गुमसुम को तबस्सुम दे दवा बीमार को देकर खुशी पाने ,अना को जज़्ब करने का तजुर्वा कर न यूं गमगीन हो खुद भी न कर माहौल भी वैसा दिलोजां जीतने हैं तो, बिखरने का तजुर्वा कर ये ग़रदूं की गुजारिश है गुजारो शब हमारे संग महकना है तो संदल से लिपटने का तजुर्वा कर

जो मिलना है खुदा से ,खुद से मिलने का तजुर्बा कर
किसी मजबूर को महफूज करने का तजुर्वा कर
मोहब्बत है तो खुलकर सामने आना जरूरी है
किसी आशिक की आहों पे मरने का तजुर्वा कर
मुलाकातो के जरिए है  जरा सा हौसला तो कर
हवा भर ले परो मे और उड़ने का तजुर्वा कर
कि गुमसुम को तबस्सुम दे दवा बीमार को देकर
खुशी पाने ,अना को जज़्ब करने का तजुर्वा कर
न यूं गमगीन हो खुद भी न कर माहौल भी वैसा
दिलोजां जीतने हैं तो, बिखरने का तजुर्वा कर
ये ग़रदूं की गुजारिश है गुजारो शब हमारे संग
महकना है तो संदल से लिपटने का तजुर्वा कर

Sunday, March 24, 2019

क्या गुनें और क्या चुनें

मन में पीड़ाएं बहुत हैं क्या कहें और क्या सुनें
छ्ल रहे हैं हम हमें ही क्या गुनें और क्या चुनें ?

छांह तो मिलती है लेकिन राह खो जाती यहां
सम्वेदना भी वेदना के साथ सो जाती यहां
श्रमशील उद्यमिता जुटी है ताम्रपत्रों के लिए
और विलखता है इधर जीवन चरित्रों के लिए
आश्रमों में भगदड़े है होड़ वैभव के लिए
और तिरस्कृत त्याग तकता राह आश्रय के लिए
मन बसा है मूल्य में और तन रमा सुविधाओं में
श्रेष्ठंता निकृष्टता में भेद करना है कठिन
साधनों ओर साधना में आज हम किसकी सुनें

प्रश्नवाचक हो गए हैं मित्र भी और शत्रु भी
खो गए हैं धैर्य सारे धर्म के सब सूत्र भी
कुछ ढूढ़ना सभव नहीं जब दृष्टि ही अन्यत्र है
नवकुसुम की गंध में मदअंध करता इत्र हैं
गुरूपीठ पर है विकृ दर्पण लोभ मय है साधना
रस कहां से पाए जीवन समरस नहीं जब भावना
मुख फंसा है व्यंजनों में सुख है सरल अभिधाओं में
अनुशासितो भयशासितो में भेद करना है कठिन
अनुभूति या विभूतियों में हम कहो क्रिसकी सुने

गीत तो उगते हैं लेकिन लय तनिक सधती नहीं
बांसुरी खुलती है तो मृदुअंग बजती ही नहीं
भोग से भागा मगर जोग सध पाया नहीं
रात आधी हो चली  मन लौट कर आया नहीं
कैसे काटेंगे फसल जब बीज ही बोया नहीं
व्यासत्व  संभव ही नहीं निजता को यदि खोया नहीं
किसकी मानें प्रेम की या राज की दुविधाओं में
क्या सुखद है क्या दुखद है भेद करना है कठिन
चाहना और चेतना में अब हम कहो किसकी सुनें

महामना

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