अनमना है गगन और धरा मौन है
किंचित है विचलित मन समीर का
तमतमा गया मुख सूर्य का
खुल गया है कोई स्कंध पीर का
खुल गया है कोई स्कंध पीर का
किंचित है विचलित मन समीर का
ऋषियों सम वृक्ष जो काट रहे है
भविष्य अपना शापों से पाट २हे हैं
मूको की आहों से आहत हैं वन
नर्क हो रहा है नागरी जीवन
गूंज रहा निविड़ में दर्द नीर का
खुल गया है कोई स्कंध पीर का
किंचित है विचलित मन समीर का
कोसती है कोख अपने पाप का प्रसव
संवेदनाएं सोईं क्यों , कलुष गया जग
देखते हैँ सब अपराध यह जघन्य
शौर्यहीन हतबल हैं मौन हुए अन्य
विदीर्ण हुआ आज पुनः ह्रदय चीर का
खुल गया है कोई स्कंध पीर का
किंचित है विचलित मन समीर का
भीरुओं की भीड़ हुआ संगठन समाज
क्यों शेरों के वंश पे है सियारों का राज
करुणा न जगा पाई नानक की माटी
रहगई अशक्य गुरुतेग की परिपाटी
टूटा न धैर्य क्यों अधीर धीर का
खुल गया है कोई स्कंध पीर का
किंचित है विचलित मन समीर का
शीर्ष को लालायित हैं पतित और अधम
उज्जवला के मुख पर कालिख का क्रम
रोष भरे मेघों में क्रोधित तड़ित
रुदन कर रही है राष्द्र की नियति
हो गया है कज्जल चरित्र क्षीर का
खुल गया है कोई स्कंध पीर का
किंचित है विचलित मन समीर का
"©" M Jgdis
अनमना है गगन और धरा मौन है
किंचित है विचलित मन समीर का
तमतमा गया मुख सूर्य का
खुल गया है कोई स्कंध पीर का
कोसती है कोख अपने पाप का प्रसव
संवेदनाएं सोईं क्यों , कलुष गया जग
देखते रहे सब अपराध वह जघन्य
क्यों शौर्यहीन हतबल हो मौन हुए अन्य
विदीर्ण हुआ आज पुनः ह्रदय चीर का
खुल गया है कोई स्कंध पीर का
भीरुओं की भीड़ हुआ संगठन समाज
क्यों शेरों के वंश पे है सियारों का राज
करुणा न जगा पाई नानक की माटी
रहगई अशक्य क्यों गुरुतेग की परिपाटी
टूटा न तटबंध क्यों धैर्य धीर का
खुल गया है कोई स्कंध पीर का
महामना
जगदीश गुप्त