- जख्म न छेड़े आँसू हैं बेताब छलकने लगते हैं
सूखे फूल किताबों में ही रख्खे अच्छे लगते हैं
- दरिया ऐ गम इन आंखों से किसने बहते देखा है
बड़ी उम्र वाले भी दुःख में मासूम से बच्चे लगते हैं
- वक्त नहीं मिलता यारों को जीवन के जंजालों से
वे सच्चे होकर हंसते हैं तो कितने अच्छे लगते हैं
- नही चाहिए किसी की दौलत न कोई दे पाया है
प्यार के दो बोल अय गर्दूं कितने मीठे लगते हैं
- बिना इबादत इमारतें सब मन्दिर मस्जिद गुरूद्वारे
जिनको नूरऐखुदा मिला उनको सब एक ही लगते हैं
sukhe ful kitabo me hi achhe lagte hai.....
ReplyDeletewo sache hokar hanste hai to kitne achhe lagte hai....
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ReplyDeleteनही चाहिए किसी की दौलत न कोई दे पाया है
प्यार के दो बोल अय गर्दूं कितने मीठे लगते हैं
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बिना इबादत इमारतें सब मन्दिर मस्जिद गुरूद्वारे
जिनको नूरऐखुदा मिला उनको सब एक ही लगते हैं
last ki do panktian , gazab ki lagin, bahut sashakt gazal, dheron badhai sweekaren.
aur han ek baat aur, itne din kahan gafil pade rahe, hum to aapko blog par dhoondhte khade rahe. aapki rachnaon ko miss kiya. dhanyawaad.
Tippanee ke roopme likhee rachnaa, nihayat achhee hai, ye kehnekee zaroorat to nahee...phirbhee...aapki binaa ijaazatke, aapheeke naamse, use apne "kavita" blogpe copy,paste, kiyaa...ke mere any paathakbhi uska lutf uthayen!
ReplyDeleteAur aapki zarra nawazeeke liye shukrguzaar bhee hun!
snehadar sahit
shama
गाफिल जी, बहुत दिन बाद आप मेरे ब्लॉग पर पधारे, कमेन्ट किया , ह्रदय से आभारी हूँ आपको रचना पसंद आई , शुक्रिया. आप काफी समय बाद आये हैं इस बीच मेरी कई पोस्ट आपके दीदार को तरसती रह गईं, समय मिले तो उन पर भी नज़र डालें और यदि प्रतिक्रिया दें तो बहुत अच्छा , मगर पढें ज़रूर ये मेरी ख्वाहिश है. योगेश वर्मा "स्वप्न" swapnyogesh.blogspot.com
ReplyDeleteवाह जी वाह, आपका भी जवाब नहीं........बहुत खूब!
ReplyDeleteआपकी टिपण्णी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
ReplyDeleteबहुत ही ख़ूबसूरत और दिल को छू लेने वाली ग़ज़ल लिखा है आपने जो काबिले तारीफ है!
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteकोई ऐसी पंक्ति नहीं जिसे लेकर कह सकूँ की ये सबसे बेहतरीन है... सभी शानदार है...
ReplyDeleteब्लॉग का टेम्पलेट भी सुन्दर है....
मिला आराम, हुआ महसूस, अकेले नही,
ReplyDeleteजब इक 'गाफिल'-सी ग़ज़ल साथ चली!
Aapki tippaneeke liye bas yahee jawab soojha..."'Shama'ko bujhake.." is kavitaape...derse de rahee hun, phirbhee, qubool karen!
गाफिल साहिब, आप अच्छा, बहुत अच्छा, नहीं बहुत ही अच्छा लिख रहे हैं. शायर के लिए बेहतरीन इन्सान होना भी जरूरी है और यह खूबी तो ऊपर वाले ने आप में कूट कूट कर भर दी है. आज के दौर में हर दो मिसरे टांक लेने वाला खुद को मीर या ग़ालिब मान लेता है और दूसरों को हिकारत से देखता है. ऐसे दौर में आप दूसरों को तवज्जह दे रहे है, उनकी हौसला अफजाई कर रहे हैं और मुझ नाचीज़ को जर्रा न बता कर आफताब बन जाने के लिए प्रेरित कर रहे है, आपकी अजमत को सलाम. यह सब लफ्फाजी नहीं है भाई, दिल की आवाज़ है.
ReplyDeletebahut achhi aur imaandaar rachnaayein hai....achha laga aapko padhna :)
ReplyDeletewww.pyasasajal.blogspot.com
ज़िन्दगी का फलसफा समझाती आपकी ये ग़ज़ल अच्छी और सच्ची लगी मुझे.......ढेरों बधाइयाँ, यूं ही लिखते रहिये.....
ReplyDeleteसाभार
हमसफ़र यादों का.......
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ReplyDeleteबिना इबादत इमारतें सब मन्दिर मस्जिद गुरूद्वारे
जिनको नूरऐखुदा मिला उनको सब एक ही लगते हैं ।
बेहतरीन शेर, वैसे आप तो गज़लों के मास्टर हैं वो क्या कहते हैं,
गज़लसरा ?