क्यूँ आप समझते हैं निज को निर्बल और निसहाय भला
जो आग छुपी है हृदय में उसको थोड़ा सा और जला
निजता को बचाए रखने से मिलता कोई विस्तार नहीं
बीज बिना माटी मिले कभी ब्रक्छ हुआ क्या बताओ भला
अब हल्कापन है लोगों में ,उड़ते हैं हवा के झोंकों में
गुरुता के लिए ,गिरिता के लिए ,अपने अहम को और गला
भारत की संस्कृति का वचन ,परहित सा कोंई धर्म नहीं
शुचिता के सुमन शुभता के कंवल अपने जीवन कुछ और खिला
कल्याण दया ममता की लहर उठती है यदि तेरी छाती में
आनंदित जग जीवन के लिए ,इसमे थोड़ा सा शौर्य मिला
सही बात है, परोपकार वही कर सकता है जिसमे सामर्थ्य हो। एक निर्बल किसी को क्षमा करे तो इसमें उसकी विवशता अधिक और सज्जनता कम होती है, अतः सज्जन बनने के लिए भी सामर्थ्य चाहिए। हम करना बहुत कुछ चाहते हैं पर स्वयं को सागर की एक बूँद समझ कर बैठ जाते हैं, यह भूल जाते हैं की बूंदों के बिना तो सागर का अस्तित्व नही।
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