मधुर प्रीत बेला के अनुपम अनुबंध
मथते हैं मन को तुम्हारी सौगंध
स्मृति झरोखों पर मलयज सुगंध
दृगों में द्रवित प्रिय पीड़ा के बंध
पुनः पुनः दृश्यमान प्रणयित स्कन्ध
हृदय के पटल पर विराजित प्रबंध
मथते हैं मन को तुम्हारी सौगंध
मतिहारी मनुहारी उद्वेगी प्रसंध
वैदेही वरदेही युग्मों के संध
गीतों में उतरे छुअन के निबंध
परिभाषा को तरसे अबूझे सम्बन्ध
मथते हैं मन को तुम्हारी सौगंध
अटकाते भटकाते भावों के फंद
संदर्शित संदल कपाटों के संद
विहगों की पांखों पर उल्लासित छंद
संध्या को नीड़ों में अलसाये वृन्द
मथते हैं मन को तुम्हारी सौगंध
कुंतल कपोलों पर लहराते मंद
कुंडल की किंकणी में बंदी आनंद
प्रतिहारी स्वीकारी आवेशी द्वंद
आशंकित आल्हादित चितवन स्पंद
मथते हैं मन को तुम्हारी सौगंध
bahut khubsurat...........!!
ReplyDeleteबहुत उम्दा कविता है।बधाई स्वीकारें।
ReplyDelete