Monday, December 14, 2009

शब्दिका


सड़ने लगा पानी पुनह,
पुण्यघट रीते
देवता के द्वार से लौटे कलश रीते

पात्र का मंजन निरंतर ,
भावना से हृदय अंतर
सुद्ध सात्विकता के पुजारी ,
हो गए इतिहास बीते

कल क्रम से हारती हर जीत ,
आरती के उत्स का संगीत
साधना सातत्य का पर्याय ,
अवरोध और व्यतिक्रम पलीते

है समय की आत्मजा नियति ,
उम्र चढ़ते ही विदा 'सुमति'
भंवर भवरों को नहीं भांवर,
मधु विरत रसवंत सोम ही पीते

8 comments:

  1. wah gafil ji,bahut sunder rachna, aur hindi ka prayog lajawaab.

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  2. behad khoobsoorat rachna hai sachmuch...jin kam sabdo me baat vistar se kahi hai ...hatts of for u ........bahut dino k baad ye rachna padhkar accha laga....:)

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  3. गीत की तारीफ करूं या गीतकार की. 'कागज़ पे रख दिया है कलेजा निकाल कर', रचना बिलकुल इसी अंदाज़ में रची गयी है. इस समसामयिक गीत की सफल प्रस्तुति के लिए बधाई. बहुत दिनों के बाद आया बीमारी और रोज़गार की दिक्कतें झेलने के बाद. धीरे धीरे सभी रिश्तों को सँवारने और जोड़ने का प्रयास कर रहा हूँ. इस आशा के साथ कि आप स्वस्थ होंगे, आपकी बाट जोह रहा हूँ.

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  4. सुन्दर शब्द और भाव से रचित आपकी ये रचना अनुपम है...
    नीरज

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  5. Rachana me ek naad hai jo,kaan aur man donoko suhata hai!

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  6. bahut hi sundar shbdon mein sundar bahavon ko piroya hai.
    laybaddh geet sa khanaKta hua!
    bahut hi behtareen prastuti.

    Chitr bhi ati sundar!

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  7. सुंदर शब्द, सुंदर शिल्प, सुंदर भाव ....... अनुपम रचना .......

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  8. thanks a lot sir...mere blog par aane k liye ...i hope apko vo comment vali harkat fir se dikhyi na de .....aap k margdarshan k chalte ek nayi gajal par aapki pratikya ka intjaar rahega ,....thanks again

    vandana

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