Monday, December 14, 2009

शब्दिका


सड़ने लगा पानी पुनह,
पुण्यघट रीते
देवता के द्वार से लौटे कलश रीते

पात्र का मंजन निरंतर ,
भावना से हृदय अंतर
सुद्ध सात्विकता के पुजारी ,
हो गए इतिहास बीते

कल क्रम से हारती हर जीत ,
आरती के उत्स का संगीत
साधना सातत्य का पर्याय ,
अवरोध और व्यतिक्रम पलीते

है समय की आत्मजा नियति ,
उम्र चढ़ते ही विदा 'सुमति'
भंवर भवरों को नहीं भांवर,
मधु विरत रसवंत सोम ही पीते

Wednesday, October 28, 2009

गीत


ह्रदय योग कर दे ,हमें मीत कर दे

चलो कोई ऐसा ,लिखें गीत, गायें।

सूखी पडी है, नहर नेह रस की

पतित पावनी गीत गंगा बहायें ॥


दृग्वृत पे मन के दिवाकर जी डूबे

उचटते हुए प्रीत बंधन हैं ऊबे ।

कुसुम चाव के ,घाव खाए पड़े हैं

गीत संजीवनी कोई इनको सुनाएँ ॥

ह्रदय योग कर दे ......

चकाचोंध चारों तरफ़ ,फ़िर भी कोई

तिमिर के घटाटोप पे आँख रोई ।

कहींपर निबलता कहीं भूख बिखरी

इन्हे ज्योति के गीत देकर जगाएं ॥

ह्रदय योग कर दे ......

घटाओं को तृप्ति बरस कर ही मिलती

हमीं पड़ गए संचयों में अधिकतम ।

इसी से हुए प्राण बेसुध विकल कृष

गीत अमृत इन्हें आज जी भर पिलायें ॥

ह्रदय योग कर दे ........

Thursday, October 1, 2009

शरद पूर्णिमा की शुभ कामनाये


चांदनी हो मुबारक सभी को चाँद आया है रस बरसाने
लेके अंगडाई अरमान जागे, फ़िर हरे हो गए हैं फ़साने

वक्त के घोल में तल्खियों को ,यूँ खंगाला बहुत वक्त मैंने
दाग दिल के मगर सख्त निकले ,आगये चांदनी में रुलाने

सूखी हुई झाडियों में ,आज खिल आई है फ़िर से कोंपल
उम्र दौडी है पिछली गली में ,गुजरे कल को गले से लगाने

हर सदी लेके आई सदी को ,बिना पूंछे ही नेकी बदी को
आप आए न दामन झटक कर,चांदनी आ गयी फ़िर बुलाने

याद के बुलबुले झाग बन कर, छा गए उम्र की वादियों में
आँख छलकीहै शायद तुम्हारी,बनके शबनम लगी मनभिगाने


Sunday, September 20, 2009

बतियाने से समय कटेगा , कदम उठें तो बात बनेगी


बतियाने से समय कटेगा ,
कदम उठें तो बात बनेगी

सोये रहजाना उचित नहीं ,

मत सोच कि कोई खरा नहीं
लहरों पर भी करो सवारी,,,,

उड़ना भी कुछ बुरा नही ।
किंतु न अपनी धरती छूटे,,

न जगती का छूटे मान
शत्रु से यदि रार न ठानी ,

रार स्वयं से आन ठनेगी

अन्यायी से मेल न करना ,

शक्तिमन्त्र को सदा पालना
बीज विजय का ,गीत प्रीत के ,

ऊँचें सपनों को सम्हालना
सज्जन शक्ति का संचय और

मदमत्ता का रखना ध्यान
किंचित भ्रम में मत रहना ,

धरती कोई अवतार जनेगी

खामोशी के अपने गहरे माने होते हैं जिन पर इसकी रहमत हो मस्ताने होते हैं

खामोशी के अपने गहरे माने होते हैं
जिन पर इसकी रहमत हो मस्ताने होते हैं

गिरते हैं कहकहे अचानक जब ठोकर खा कर
तब ही हम अपनी हस्ती पहचाने होते हैं

यारा दौरे दौड़ भाग की उलझन में तुम हो
पर जुबान पर दुनिया की तो ताने होते हैं

जब बन्दों का मिलन खुदाई से हो जाता है
तब किस्मत में सर्वत से बतियाने होते हैं

तेरी शोखी ,बिल्कुल जैसे धूप चटखती है
इसमे गाफिल गर्दू सब दीवाने होते हैं

Thursday, September 10, 2009

सीधी सच्ची बात

करे खनकती हंसी उजागर तुम भी खूब समझती हो
सीधी सच्ची बात कहूं तुम मुझ को अच्छी लगती हो


इन्द्रधनुष का रूप सजीला बारिश की बातें रिमझिम
साँझ सुहानी भोर सुनहरी पूनम रात बिखरती हो


चन्दन केशर नाग मुश्क का असर अर्श तक जा पहुंचे
उतरे हर धड़कन में सावन जब तुम साँझ संवरती हो


कच्ची है कचनार मगर ,,आँखों में शरारत आ बैठी
रह रह कर तुम बार बार छू छू के नज़र, गुजरती हो

गर्दूं भरने लगा कुलांचें ,,,,,हसरत ने पर फैलाये
ख्वाव ले रहे अंगडाई पर ,,,शायद शर्म ,मुकरती हो

Sunday, September 6, 2009

लहर


पलट कर जब समंदर में ,लहर यादों की आती है
बहकता है ये दिल मेरा ,नजर जब मुस्कुराती है


अंधेरे बंद कमरें में ,अचानक रोशनी करके
हर इक तहजीब से आगे ,हवा में गुदगुदी करके
घुली लम्हों में खुशबू सी ,शरारत गीत गाती है

पलट कर जब ................

दुआएं साफ दिखतीं हैं ,तेरे खामोश ओंठों पर
लरजता द्वार तक आँगन , तुम्हारी एक आहट पर
मुसलसल ये वफ़ा दिलवर ,मेरे अरमां जगाती है
पलट कर जब ...............

अकेले कैक्टस पर फूल की ,इस मेहरबानी का
नवाजिश आपकी ,बेइंतिहा ,,,,इस कद्रदानी का
'ये आराइश ये रौनक इस नजर में झिलमिलाती है.

पलट कर जब ................

Saturday, August 22, 2009

नागफनी आंखों में लेकर, सोना हो पाता है क्या


नागफनी आंखों में लेकर, सोना हो पाता है क्या
जज्बातों में उलझ के कोई, चैन कहीं पाता है क्या

सावन के झूले पर उठते ,मीत मिलन के गीत कई
सबकी किस्मत में मिलनेका ,अवसर आपाता है क्या

बीज मोहब्बत के रोपे ,फ़िर छोड़ गए रुसवाई में
दर्द को किसने कैसे भोगा ,कोई समझ पाता है क्या

धूप का टुकडा हुआ चांदनी, खुशबू से लबरेज़ हुआ
चाँद देख कर दूर देश में ,याद कोई आता है क्या

मन के तूफां पर सवार हैं ,,,उम्मीदों की नौकाएं
बनती मिटती लहरें पल-पल, गर्दूं गिन पाता है क्या

Tuesday, August 11, 2009

आत्म वंचना करके किसने क्या पाया
कुंठा और संत्रास लिए मन कुह्साया

इतना पीसा नमक झील खारी कर डाली
जल राशिः में खड़ा पियासा वनमाली
नहीं सहेजे सुमन न मधु का पान किया
सर से ऊपर चढ़ी धूप तो अकुलाया

सूर्या रश्मियाँ अवहेलित कर ,निशा क्रयित की
अप्राकृतिक आस्वादों पर रूपायित की
अपने ही हाथों से अपना दिवा विदा कर
निज सत्यों को नित्य निरंतर झुठलाया

पागल की गल सुन कर गलते अहंकार को
पीठ दिखाई ,मृदुता शुचिता संस्कार को
प्रपंचताओं के नागों से शृंगार किया
अविवेकी अतिरेकों को अधिमान्य बनाया

Saturday, July 4, 2009

अपनापन

अपने ही अवरोध बनेंगे अपने ही पतवार
मझधारों तक लायें अपने ,वे ही लगायें पार

नित्य निकलता सूर्य तमस से नित्य उसीमें लीन
गौरव की ऊंची उड़ान तब ,बाँध रहा क्यों हीन
अपनी ही परछाईं जीते ,जाए उसी से हार
अपना ही संघर्ष आपसे ,अपना ही विस्तार

बाहर से अर्गला है बंधन ,भीतर से आश्वस्ति
निज दृष्टी में उज्जवल रहना ,सबसे बडी प्रशस्ति
अपनों पर ही क्रोध हमारा अपनों पर आभार
अपनापन ही बोझ जगत का अपना ही विस्तार

पग पग पांव बढे आता है निकट शिखर आकाश
अनुरागी अपनेपन से मन छूता है विश्वास
सपने और अपने न रूठें यह जीवन का सार
अपनेपन की अपनी खेती ,अपनापन व्यापार

Wednesday, July 1, 2009

मैं बनाता रह गया श्रेष्ठता का काफिया
औ प्रतिष्ठा ले गया लूट कर एक माफिया

अनसुनी करते रहे वो हर गुहारो प्रार्थना
एक्शन जब हो गया तब कहा ये क्या किया

इस तरह से मत खुलो कि संतुलन खोना पडे
भांप कर मज्मूने खत हंस पडा था डाकिया

कष्ट किश्तों में भला या फ़िर गुलामी चाहिए
भींच ले तू मुठ्ठियाँ बदले हर इक जुगराफ़िया

तख्ता पलट होने में कितनी देर लगती है कहो
केन्द्र तब तक ही सुरक्छित अहम जब तक हांशिया

उद्विग्नता बढ़ती गयी ज्यों ज्यों निकट मंजिल हुई
कर दवा कुछ होश की ला पिला दे साक़िया

Tuesday, June 23, 2009

मै तो उसका समझ रहा था कच्चा पानी
लेकिन वो तो जीत गया करके मनमानी

वो जीता तो सच है,, मुझको बुरा लगा
लेकिन कहा किख़ुद मैंने की थी नादानी

अच्छाहुआ जोउसने अपनी लाज बचाली
आज भले चंगों की नीयत निकली कानी

नमक मिलेगा आटे में तो चल जाएगा
यार हुए, आमादा ..कर डाली शैतानी

हम कैसे उम्र दराज़ हुए? हैरत होती है
अब तक करते मिलते हैं बातें बचकानी

Wednesday, June 10, 2009

असर हम पर न हो जाए जमाना है बदलने का
सफर है जिंदगी भर का ,है वादा साथ चलने का

मुसीबत ने बयां कर दी मुसीबत रिश्ते नातों की
बहाना ढूंढते हैं दोस्त, कतरा... के निकलने का

नजरफिसली नआई काम में फ़िरकोई होसियारी
नहीं मौका मिला अब के जरा सा भी संभलने का

नदी सूखी.पड़ी है, अब परिंदे ,क्या करें ?आकर
हवाओं में जलन है,,ये नहीं मौसम ,टहलने का

गुफ्तगू बा अमल कर दे बना कुछ कायदा ऐसा
यही एक रास्ता बचता है दिल की गांठ खुलने का

Friday, May 29, 2009

  • जख्म न छेड़े आँसू हैं बेताब छलकने लगते हैं

सूखे फूल किताबों में ही रख्खे अच्छे लगते हैं

  • दरिया ऐ गम इन आंखों से किसने बहते देखा है

बड़ी उम्र वाले भी दुःख में मासूम से बच्चे लगते हैं

  • वक्त नहीं मिलता यारों को जीवन के जंजालों से

वे सच्चे होकर हंसते हैं तो कितने अच्छे लगते हैं

  • नही चाहिए किसी की दौलत न कोई दे पाया है

प्यार के दो बोल अय गर्दूं कितने मीठे लगते हैं

  • बिना इबादत इमारतें सब मन्दिर मस्जिद गुरूद्वारे

जिनको नूरऐखुदा मिला उनको सब एक ही लगते हैं

Sunday, May 10, 2009

बहोत अंधेरा घिर आया है दिल की राहों में
जलाओं दीप मोहब्बत के तुम निगाहों में

हुज़ुमे गम है चुभन दिल में नमी आंखों में
लोग डूबे हैं अंधेरों में सुरुरों में औ अनाओं में

करूं निसार हजार बार ये जिंदगी तुझ पर
दौर ऐ गर्दिश में भी जीता रहा वफाओं में

हर तरफ तंज़ कहीं रंज ,है बदगुमानी कहीं
सुकूने ऐ दिल की तलब है मेरी सदाओं में

संभलो तहजीब पे हमलों का दौर है गर्दूं
बहोत है दर्दे वतन मरहम चढाओ घावों में

बहोत अँधेरा घिर आया है दिल की राहों में

बहोत अँधेरा घिर आया है दिल की राहों में

जलाओ दीप मोहब्बत के तुम निगाहों में


हुज़ुमे गम है चुभन दिल में नमीं आंखों में

लोग डूबे हैं अंधेरों में सुरुरों में अनाओं में


करूं निसार हजार बार ये जिंदगी तुझ पर

दौरे गर्दिश में भी जीता... रहा वफाओं में


हर तरफ तंज कहीं रंज, है बदगुमानी कहीं

सुकून दिल की तलब है मेरी सदाओं में


सम्भलो तहजीब पे हमलों का दौर है यारो

बहोत है दर्द वतन मरहम चढाओ ग्घवों में में

Tuesday, May 5, 2009

किसीको चाँदी किसीको सोना
जीवन,कुछ पाना,कुछ खोना

संग संग तदबीर-ओ-मुक़द्दर
जीवन कुछ हँसना कुछ रोना

लम्हा लम्हा रूप बदलता
जीवन कटना उगना बोना

नाव सवारी के सर पर है
जीवन है जीवन को ढोना

"गर्दूं" ने जीवन भर ढूँढा
जीवन है अँधियारा कोना



Monday, April 27, 2009

मनोज भाई
यह गजल आपको समर्पित कर रहा हूँ


आंखों के सामने नहीं दिल में ख्याल में
हरदम रहा वो साथ ,खुशी में मलाल में

जागी जो रात साथ, बुरा मान गया दिन
शक हो गया खलल का हक में हलाल में

उल्फत के राग मैंने आंखों से सुन लिए
खोया हुआ था वोमेरे खत में ख्याल में

सुलगता हुआ मिला ,हंसता हुआ सितारा
बैचेन हो रहा था , ...खुदी के सवाल में

गर्दूं को बहुत ढूंढा , .अब जाके मिला है
बैठा हुआ था बन्दा कबीर-ओ-जमाल में

Tuesday, April 21, 2009

चाहना हक नहीं उल्फत ,मुहब्बत तो है मिट जाना
बाँटना मुस्कुराहट ही ,फकत चाहत का पैमाना

जमाने के लिए रोता , जमाने लिए हंसता
मजहब जिसका मुहब्बत है जमाने के लिए मरता
उम्मीदें जिसने पालीं हैं ,वही गमगीन होता है
जिसे तुम आजमाओगे, वही टूटेगा पैमाना

खोल लो दिल के दरवाजे ,हवाओं को गुजरने दो
अंदेशे तो सदा होंगे ,उन्हें भी वार करने दो
सच्चाई जान लेने दो , गुरुर ऐ बद गुमानी को,
वो चाहत ख्वाब है याफ़िर दिलेवहशत का अफसाना

Sunday, April 19, 2009

चाँदनी से भरे मुट्ठियाँ
लीपती मैं रही चिट्ठियां

आंचल में बिखरे हुए
पलको में उलझे हुए
सपनों को सिलती रही
बरसती रहीं बदलियाँ

मधुबन कई बुन लिए
टांके कई इन्द्रधनु
ममता को तुर्पते हुए
घायल हुई उँगलियाँ

सितारों को जड़ते हुए
वसंतों को मढ़ते हुए
जरीदारधागों में लिपटीं
उलझतीं रहीं गुत्थियाँ

Saturday, April 18, 2009

यहाँ तंज भी है और रंज भी है क्या खूब कहन है वाह वाह वाह
तीर ऐ जुबां खामोश भी है तलवार भी है ये वाह वाह वाह

वो रोज़ बयान बदलने को कहते हैं सियासत ,मजबूरी
बे खौफ ऐ खुदा ,बन्दा ऐ खुदा करते हैं इबादत वाह वाह वाह

कोई झल्लाए तो धमकी है , कोई धमकाए तो पागलपन
ये कातिल मौज निजामत की क्या खूब अदा है वाह वाह वाह

तलवों पे सितमगर के मालिश भलमनसाहत के घर नालिश
आफत में आब ओ ताब मिले ये अपनी जम्हूर्त वाह वाह वाह

मस्ती में दहशत गर्द यहां दहशत में देश के वाशिंदे
मुजरिम की अदालत में मुंसिफ खैर मनाता वाह वाह वाह

Saturday, April 11, 2009



अलसाई यादों को अचानक पुरवैया ने जगा दिया
नीद की बांहों में ख्वाबों ने अरमानो को सजा दिया

धुप मे चादर डाल के सर पे चाँद मेरे घर पर आया
नंगें पावों ,जलती दुपहरी, सन्नाटों से घबराया
तन्हाई में मैंने अपने डर को गले से लगा लिया

टकराती थी रोज़ नजर आते जाते राहों मे
दौड़ लगाती थी उम्मीदें भर कर जिसे निगाहों मे
उस खुशबू ने दस्तक दी औ घर को महका दिया

अब तो शाम ढले दिन निकले सूरज के संग रात हुई
जब दामन मेरा भीग चुका तब पता चला बरसात हुई
दर्द न सोया जब जब ख़ुद माजी की लोरी सुना दिया

Thursday, April 9, 2009

कितने प्रश्न निरूत्तर होकर झेल रहे उपहास

नहीं दिखती है कोई आस ,नहीं दिखती है कोई प्यास

...............................................

मेल ने अनबोला साधा , अनुभव ने मींची आँख

सद्भावों के पंछी लुंठित, कटे दया के पांख

सुख उतरा है निगुणो पर, और सदगुण खडे उदास

नहीं दिखती है कोई आस ....................

चिन्तन के सर पीड़ा भारी,शौर्य के मुख पर कालिख कारी

मित्र भावः के द्वार बंद हैं , लाज निर्वसन हुई बेचारी

सत्य हुआ तप हीन और विश्वास हुआ निः श्वास

नहीं दिखती है कोई आस .......................

सारी मर्यादाएं कलंकित ,भलमनसाहत है आतंकित

मुंह देखे की कहे प्रतिष्ठा ,मानवता का मन है शंकित

विनम्रता मतलब की मारी, डग डग आलस का वास

नहीं दिखती है कोई आस ......................

Monday, April 6, 2009

लगता है जिन्दगी है जैसे कोई नदी

कभी पत्थरों से जूझे कभी अपने ही बाँध लेते
जब सूख जाती धारा मुंह फेर निकल लेते
पर ,गहराई नहीं खोती बीते भले सदी
लगता है जिन्दगी है जैसे कोई नदी

घेरा कभी शहर ने ,कभी सूने चली अकेली
किसी मोड़ खुशी मेले , कहीं गुमसुम सी एक पहेली
चलती ही जाए कलकल ,मिले नेकी या फ़िर बदी
लगता है जिन्दगी है जैसे कोई नदी

किनारों से कहीं उलझे , कहीं शांत और निर्मल
कहीं वेगवती धारा ,कहीं छीण निबल निश्छल
बूँद चली सागर को ,रह सकती नहीं बंधीं
लगता है जिन्दगी है जैसे कोई नदी


Friday, April 3, 2009

दिल के कोने में कोई शाम जगमगाती है
डूबती धूप किनारों पे मुस्कुराती है
हवा के साथ बिखरती लट छू के
मेरी हसरत भी मेरे साथ गुनगुनाती है

बर्फ हो जाती है बहती नदी अचानक से
रात खामोशी से तन्हाई निगल जाती है
कहीं दूर सिसकती किसी घुंघरू की हँसी
गर्म लोहे सी मेरे दिल में पिघल जाती है

एक पीली किरण की जादूगरी
नजर की ताब, तारुफ़ को बदल जाती है
आँख की आग बुझाने को उतरे आंसू से
ठसक पांव की दलदल में फिसल जाती
है

Tuesday, March 31, 2009

नदिया से तटबंधों की तकरार पुरानी है
सीता सहनशीलता ने दुर्गा की ठानी है
सूर्य उदित हो चला तमस छाया हो जाएगा
संकल्पों की धार नई तलवार पुरानी है

कर में लिए कृपाण काटते स्वयम हीनताएं
हृदय विवर से खींच निकाले सभी दीनतायें
समता की शक्ति धारण करने आव्हान करें
अन्यायों से , अनाचार से , रार पुरानी है

दुर्गम दुर्गों पर मन के अपना अधिकार रहे
निर्बल निर्धन सबल धनी से सम व्यवहार रहे
शत्रु रहित सतपथ पर नित जीवन निर्बाध चले
प्रार्थनाओं के
स्वर में यह मनुहार पुरानी है



Sunday, March 29, 2009

दिल का मौसम ,दर्द का मौसम
मीत बिना यह भीड़ का मौसम

खैरात के जंगल में खुद्दारी
बाढ़ों में बरसात का मौसम

नाम ऐ मोहब्बत लिखकर किसने
भेजा है जज्बात का मौसम

सच सहने का हुनर सीख लो
दुनिया है ऐबात का मौसम

किन अल्फाजो शाबासी दूँ
गर्दू पर है साज़ का मौसम

Wednesday, March 18, 2009

हल तो हर मुश्किल का है

असली सवाल पर दिल का है

दिल्ली बिल्ली होकर तो देखे

इस्लामाबाद भी चूहे कुल का है

कितना भी जहरीला सांप रहे

कितने ही गहरे बिल में हो

फैला ले फन कितना ही ,पर

अन्तिम दांव नकुल का है

Wednesday, March 11, 2009

ग़ालिब को छूना है ,धरती पर चलना है
काँटों की रिवायत को .फूलों में बदलना है

कोई राह नहीं लेकिन ,परवाह नहीं बिल्कुल
बस जिद है अपनी भी ,उस पार
निकलना है

संगसार किया सबने जब प्यार किया हमने
शीशे के घरोंदों को, ताजो में बदलना है

बारूद पे बैठे हो ,आतिश से न खेलो तुम
इस मौजे जवानी का दस्तूर फिसलना है

इस दर्दे मोहब्बत को गर्दूं ने बहुत झेला
अब के तो बरसना है अब के तो पिघलना है

मै होना चाहता हूँ

निर्मल सुखद बहती हुई जलधार,
अनवरत धूप में तरु एक छायादार
यही हो भूमिका व्यवहार का आधार
मै होना चाहता हूँ स्रोत अमृत द्वार

कर्म रण में समर के शौर्य का श्रंगार
निर्माण में सातत्य संलग्नता स्वीकार
प्रतिक्षा का समापन ,तोष का अनुस्वार
मै होना चाहता हूँ स्रोत अमृत द्वार

Monday, March 9, 2009

नजर में हूर उतरे और सुखन से नूर बरसेमुकाबिल हो अगर गर्दूं समझ लेना कि होली हैबधाई रंग-ऐ-मौसम की हवाएं गोद भर लायेंकलम जब रंग बरसाए ,समझ लेना कि होली है

नजर में हूर उतरे और सुखन से नूर बरसे
मुकाबिल हो अगर गर्दूं समझ लेना कि होली है
बधाई रंग-ऐ-मौसम की हवाएं गोद भर लायें
कलम जब रंग बरसाए ,समझ लेना कि होली है

Monday, March 2, 2009

तुम मिले


तुम मिले चम्पा चमेली हो लिए

मधु मालिनी मकरंद केसर घोलिए

शब्द निसृत हो रहे अमृत सरित

रूपरागी हूँ कमल मुख खोलिए

बहती रहे यह शब्द धारा

भीगता जिससे किनारा

श्रंगार की मनुहार में जीवन कटा

अनुरागकामी हूँ सतत सुख घोलिये

शब्द की माया प्रबल

अनुराग के धागे निबल

प्रेम का साधक निम्न्त्र्ण दे रहा

नित अनवरत प्रिय बोलिए

Wednesday, February 25, 2009

क्यूँ आप समझते हैं निज को निर्बल और निसहाय भला

जो आग छुपी है हृदय में उसको थोड़ा सा और जला

निजता को बचाए रखने से मिलता कोई विस्तार नहीं

बीज बिना माटी मिले कभी ब्रक्छ हुआ क्या बताओ भला

अब हल्कापन है लोगों में ,उड़ते हैं हवा के झोंकों में

गुरुता के लिए ,गिरिता के लिए ,अपने अहम को और गला

भारत की संस्कृति का वचन ,परहित सा कोंई धर्म नहीं

शुचिता के सुमन शुभता के कंवल अपने जीवन कुछ और खिला

कल्याण दया ममता की लहर उठती है यदि तेरी छाती में

आनंदित जग जीवन के लिए ,इसमे थोड़ा सा शौर्य मिला

Saturday, February 21, 2009

बिप्लव रख कर मुट्ठी में

बिप्लव रख कर मुट्ठी में

क्रांति लिख देंगे चिट्ठी में

भूखों को सम्मानजनक रोटी अनुबंधित हो

श्रम शक्ति को उचित मूल्य अवसर अ-बाधित हो

दुःख दुविधाओं का बंटवारा नाश अभावों का

भस्म न हो पाए विकास ईर्ष्या की भट्टी में

गांवशहर के मध्य मित्र बंधुत्व प्रबंधन हो

शोषण का निर्ममता से तत्काल निलंबन हो

राजनीती की कु दृष्टी कु चाल करें बाधित

रस्सी कुत्सित व्यालो के कसिये घिट्टी में

Thursday, February 19, 2009

तुम्हारी सौगंध

मधुर प्रीत बेला के अनुपम अनुबंध

मथते हैं मन को तुम्हारी सौगंध

स्मृति झरोखों पर मलयज सुगंध

दृगों में द्रवित प्रिय पीड़ा के बंध

पुनः पुनः दृश्यमान प्रणयित स्कन्ध

हृदय के पटल पर विराजित प्रबंध

मथते हैं मन को तुम्हारी सौगंध

मतिहारी मनुहारी उद्वेगी प्रसंध

वैदेही वरदेही युग्मों के संध

गीतों में उतरे छुअन के निबंध

परिभाषा को तरसे अबूझे सम्बन्ध

मथते हैं मन को तुम्हारी सौगंध

अटकाते भटकाते भावों के फंद

संदर्शित संदल कपाटों के संद

विहगों की पांखों पर उल्लासित छंद

संध्या को नीड़ों में अलसाये वृन्द

मथते हैं मन को तुम्हारी सौगंध

कुंतल कपोलों पर लहराते मंद

कुंडल की किंकणी में बंदी आनंद

प्रतिहारी स्वीकारी आवेशी द्वंद

आशंकित आल्हादित चितवन स्पंद

मथते हैं मन को तुम्हारी सौगंध

Wednesday, February 18, 2009

होली ये बोली

होली ये बोली सुन हमजोली खेल राग की होली

अपने मन का डाल न कीचड़ खेलो रंग-रंगोली

मौज में झूमे मस्ती में नाचे मस्तानो की टोली

आओ खेलें प्रीत के रंग से जला द्वेष की होली

ओट में मेरी घर न जले ना मन सहमे कोई

मै आई हूँ नेह बाँटने भरे रंग की झोली

रुत है फागुनी मन है फागुनी साजन भी फगुनाया

सब मन गायें गीत फागुनी छोड़ बैर की बोली

जिन हाथों में बंदूकें हैं उन में ले लो पिचकारी

मायूसों को मुस्कानें दो कर लो हँसी ठिठोली

गाली का क्या काम गुलालों को मल दो गालों पर

आज न पत्थर भी कोई फेंके बात दूर की गोली

Tuesday, February 17, 2009

बहरों पर शब्द न व्यर्थ करो

गूंगों से मत शास्त्रर्थ करो

बहरों पर शब्द न व्यर्थ करो

ये टूटी हुई शलाकाएँ ,शेष न इनमें आग कोई

लालच के इन पुतलों में,बचा न देशज राग कोई

ये बँटे हुए हैं ख़ुद इतने ,कैसे हो इनका भाग कोई

इनकी है भागम भाग विकट ,इनके न कोई अनुअर्थ करो

सन्नाटे में सुने शब्द ,कहीं कोई हो यदि मनुष

करुण आर्त कृन्दन से पिघले ,हुंकार भरे ले थाम धनुष

मन वाला मत वाला होकर ,हो सके तो होजा आज मनुष

व्योम धरा नि; स्तब्ध हुए ,इनके न कोई स्लेशर्थ करो

संघनित करो तो पीड़ाएं, संधान के स्वर रोओं तो

महामंत्र है राष्ट्र मन्त्र ,बस बीज हृदय में बोओं तो

अवतार बनेगा शब्द स्वयं , तुम साथ शब्द के खोओ तो

हैं शब्द तपस्वी ओजस्वी ,इनके न कोई अन्यर्थ करो

Monday, February 16, 2009

इसी में है समझदारी

न बनिए झुनझुना झांझर , न बनिए राग दरबारी
प्रलोभन हैं बहुत जग में, बड़ी है किंतु खुद्दारी
बचा लो संस्कारों को ,इसी में है समझदारी

अगर तुम तत्व देते हो , जगत को शान्ति होती है
जिसे तुम सत्य देते हो , उसी मे क्रांति होती है
हो तुम वरदान ईश्वर का ,तुम्हें आशीष अक्षर का
खुले मन से लुटा निज को,न बन शब्दों का व्यापारी
बचा लो संस्कारों को ,इसी में है समझदारी

सजग होकर जगत में,तुम जगाओ श्रेष्ठतम चेतन
करो संहार विकृति का , रचो संसार एक नूतन
चलो संस्कृति का रथ लेकर ,पताका भारती की हो
बढ़ा चल मुक्ति के पथ पर ,जिसका है तू अधिकारी
बचा लो संस्कारों को,इसी में है समझदारी

बजो कान्हा की बंसी बन, गगन सुख रश्मियाँ भर दो
उठाओ कुंचियाँ अपनी ,हर इक मन रंगमय कर दो
मृदुल मन ताल दे थिरके ,भुवन हो नाद आनंद का
कला है हाथ जो तेरे , विश्व को बाँट दे सारी
बचा लो संस्कारों को ,इसी में है समझदारी

Sunday, February 15, 2009

नीयत और नियति

नीयत ना बदलेंगे तो फिर
नियति भला कैसे बदले
नियति वही रहना है तो
सरकार बदल कर क्या हासिल ?


कुछ लोग बदल जायेंगे बस
कुछ समीकरण हों परिवर्तित
नहीं बदलना है गर दिल
चेहरों को बदल कर क्या हासिल?


हवन यदि फिर भी पठ्ठों के हाथ रहा
और राज दंड भी उद्दंदों के साथ रहा
गीले कंडों की समिधा धुआं करेगी ही..
पंडे और पंडाल बदल कर क्या हासिल?


वंचित को शक्ति ना मिल पाए
मूक ना अभिव्यक्ति पाए
यदि लूट बरामद हो ना सके
धावों दावों से क्या हासिल?

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