मनोज भाई
यह गजल आपको समर्पित कर रहा हूँ
आंखों के सामने नहीं दिल में ख्याल में
हरदम रहा वो साथ ,खुशी में मलाल में
जागी जो रात साथ, बुरा मान गया दिन
शक हो गया खलल का हक में हलाल में
उल्फत के राग मैंने आंखों से सुन लिए
खोया हुआ था वोमेरे खत में ख्याल में
सुलगता हुआ मिला ,हंसता हुआ सितारा
बैचेन हो रहा था , ...खुदी के सवाल में
गर्दूं को बहुत ढूंढा , .अब जाके मिला है
बैठा हुआ था बन्दा कबीर-ओ-जमाल में
Monday, April 27, 2009
Tuesday, April 21, 2009
चाहना हक नहीं उल्फत ,मुहब्बत तो है मिट जाना
बाँटना मुस्कुराहट ही ,फकत चाहत का पैमाना
जमाने के लिए रोता , जमाने लिए हंसता
मजहब जिसका मुहब्बत है जमाने के लिए मरता
उम्मीदें जिसने पालीं हैं ,वही गमगीन होता है
जिसे तुम आजमाओगे, वही टूटेगा पैमाना
खोल लो दिल के दरवाजे ,हवाओं को गुजरने दो
अंदेशे तो सदा होंगे ,उन्हें भी वार करने दो
सच्चाई जान लेने दो , गुरुर ऐ बद गुमानी को,
वो चाहत ख्वाब है याफ़िर दिलेवहशत का अफसाना
बाँटना मुस्कुराहट ही ,फकत चाहत का पैमाना
जमाने के लिए रोता , जमाने लिए हंसता
मजहब जिसका मुहब्बत है जमाने के लिए मरता
उम्मीदें जिसने पालीं हैं ,वही गमगीन होता है
जिसे तुम आजमाओगे, वही टूटेगा पैमाना
खोल लो दिल के दरवाजे ,हवाओं को गुजरने दो
अंदेशे तो सदा होंगे ,उन्हें भी वार करने दो
सच्चाई जान लेने दो , गुरुर ऐ बद गुमानी को,
वो चाहत ख्वाब है याफ़िर दिलेवहशत का अफसाना
Sunday, April 19, 2009
Saturday, April 18, 2009
यहाँ तंज भी है और रंज भी है क्या खूब कहन है वाह वाह वाह
तीर ऐ जुबां खामोश भी है तलवार भी है ये वाह वाह वाह
वो रोज़ बयान बदलने को कहते हैं सियासत ,मजबूरी
बे खौफ ऐ खुदा ,बन्दा ऐ खुदा करते हैं इबादत वाह वाह वाह
कोई झल्लाए तो धमकी है , कोई धमकाए तो पागलपन
ये कातिल मौज निजामत की क्या खूब अदा है वाह वाह वाह
तलवों पे सितमगर के मालिश भलमनसाहत के घर नालिश
आफत में आब ओ ताब मिले ये अपनी जम्हूर्त वाह वाह वाह
मस्ती में दहशत गर्द यहां दहशत में देश के वाशिंदे
मुजरिम की अदालत में मुंसिफ खैर मनाता वाह वाह वाह
तीर ऐ जुबां खामोश भी है तलवार भी है ये वाह वाह वाह
वो रोज़ बयान बदलने को कहते हैं सियासत ,मजबूरी
बे खौफ ऐ खुदा ,बन्दा ऐ खुदा करते हैं इबादत वाह वाह वाह
कोई झल्लाए तो धमकी है , कोई धमकाए तो पागलपन
ये कातिल मौज निजामत की क्या खूब अदा है वाह वाह वाह
तलवों पे सितमगर के मालिश भलमनसाहत के घर नालिश
आफत में आब ओ ताब मिले ये अपनी जम्हूर्त वाह वाह वाह
मस्ती में दहशत गर्द यहां दहशत में देश के वाशिंदे
मुजरिम की अदालत में मुंसिफ खैर मनाता वाह वाह वाह
Saturday, April 11, 2009
अलसाई यादों को अचानक पुरवैया ने जगा दिया
नीद की बांहों में ख्वाबों ने अरमानो को सजा दिया
धुप मे चादर डाल के सर पे चाँद मेरे घर पर आया
नंगें पावों ,जलती दुपहरी, सन्नाटों से घबराया
तन्हाई में मैंने अपने डर को गले से लगा लिया
टकराती थी रोज़ नजर आते जाते राहों मे
दौड़ लगाती थी उम्मीदें भर कर जिसे निगाहों मे
उस खुशबू ने दस्तक दी औ घर को महका दिया
अब तो शाम ढले दिन निकले सूरज के संग रात हुई
जब दामन मेरा भीग चुका तब पता चला बरसात हुई
दर्द न सोया जब जब ख़ुद माजी की लोरी सुना दिया
Thursday, April 9, 2009
कितने प्रश्न निरूत्तर होकर झेल रहे उपहास
नहीं दिखती है कोई आस ,नहीं दिखती है कोई प्यास
...............................................
मेल ने अनबोला साधा , अनुभव ने मींची आँख
सद्भावों के पंछी लुंठित, कटे दया के पांख
सुख उतरा है निगुणो पर, और सदगुण खडे उदास
नहीं दिखती है कोई आस ....................
चिन्तन के सर पीड़ा भारी,शौर्य के मुख पर कालिख कारी
मित्र भावः के द्वार बंद हैं , लाज निर्वसन हुई बेचारी
सत्य हुआ तप हीन और विश्वास हुआ निः श्वास
नहीं दिखती है कोई आस .......................
सारी मर्यादाएं कलंकित ,भलमनसाहत है आतंकित
मुंह देखे की कहे प्रतिष्ठा ,मानवता का मन है शंकित
विनम्रता मतलब की मारी, डग डग आलस का वास
नहीं दिखती है कोई आस ......................
Monday, April 6, 2009
लगता है जिन्दगी है जैसे कोई नदी
कभी पत्थरों से जूझे कभी अपने ही बाँध लेते
जब सूख जाती धारा मुंह फेर निकल लेते
पर ,गहराई नहीं खोती बीते भले सदी
लगता है जिन्दगी है जैसे कोई नदी
घेरा कभी शहर ने ,कभी सूने चली अकेली
किसी मोड़ खुशी मेले , कहीं गुमसुम सी एक पहेली
चलती ही जाए कलकल ,मिले नेकी या फ़िर बदी
लगता है जिन्दगी है जैसे कोई नदी
किनारों से कहीं उलझे , कहीं शांत और निर्मल
कहीं वेगवती धारा ,कहीं छीण निबल निश्छल
बूँद चली सागर को ,रह सकती नहीं बंधीं
लगता है जिन्दगी है जैसे कोई नदी
कभी पत्थरों से जूझे कभी अपने ही बाँध लेते
जब सूख जाती धारा मुंह फेर निकल लेते
पर ,गहराई नहीं खोती बीते भले सदी
लगता है जिन्दगी है जैसे कोई नदी
घेरा कभी शहर ने ,कभी सूने चली अकेली
किसी मोड़ खुशी मेले , कहीं गुमसुम सी एक पहेली
चलती ही जाए कलकल ,मिले नेकी या फ़िर बदी
लगता है जिन्दगी है जैसे कोई नदी
किनारों से कहीं उलझे , कहीं शांत और निर्मल
कहीं वेगवती धारा ,कहीं छीण निबल निश्छल
बूँद चली सागर को ,रह सकती नहीं बंधीं
लगता है जिन्दगी है जैसे कोई नदी
Friday, April 3, 2009
दिल के कोने में कोई शाम जगमगाती है
डूबती धूप किनारों पे मुस्कुराती है
हवा के साथ बिखरती लट छू के
मेरी हसरत भी मेरे साथ गुनगुनाती है
बर्फ हो जाती है बहती नदी अचानक से
रात खामोशी से तन्हाई निगल जाती है
कहीं दूर सिसकती किसी घुंघरू की हँसी
गर्म लोहे सी मेरे दिल में पिघल जाती है
एक पीली किरण की जादूगरी
नजर की ताब, तारुफ़ को बदल जाती है
आँख की आग बुझाने को उतरे आंसू से
ठसक पांव की दलदल में फिसल जाती है
डूबती धूप किनारों पे मुस्कुराती है
हवा के साथ बिखरती लट छू के
मेरी हसरत भी मेरे साथ गुनगुनाती है
बर्फ हो जाती है बहती नदी अचानक से
रात खामोशी से तन्हाई निगल जाती है
कहीं दूर सिसकती किसी घुंघरू की हँसी
गर्म लोहे सी मेरे दिल में पिघल जाती है
एक पीली किरण की जादूगरी
नजर की ताब, तारुफ़ को बदल जाती है
आँख की आग बुझाने को उतरे आंसू से
ठसक पांव की दलदल में फिसल जाती है
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