Monday, July 6, 2015

कांच कंचन हुआ

आज नगर के सिद्ध और  समर्थ गीतकारों के बीच यह गीत पढ़ने का संयोग बना | सौभाग्य से सबने सराहा|
एक मांग भी आई कि इसमें वृद्धि की जाए | यह प्रयास किया है |हमारे मंच के विशेषग्यों से मुक्त सुझावों  की अपेक्छा है  |
जो स्वयं को विशेषग्य नहीं मानते वे भावपक्छ पर सुधार और उसके प्रभाव सुझाएं |  स्मरण रहे आज जो प्रशंशा हुई उसका श्रेय वस्तुतः इस मंच के विशेषग्यों को जाता है क्यों कि यहां से पास होने के कारण ही मैने आज रचना
पाठ किया |
सामान्यतः मेरी रुचि सुनने में ही अधिक है|

कांच कंचन हुआ मन वृंदावन हुआ
 पांव पायल हुई बावरी बावरी

गंधरस मेँ पगी रुप की माधुरी
भोर होते हुई पांखुरी पांखुरी

द्रुत विलंबित हुई मध्यमा छुईमुई
तार सप्तक अधर हो गए बांसुरी

सर से सरकी चुनर,धूप निखरी इधर
 सांझ की लालिमा हो गई सांवरी

तूलिका हंस पड़ी रंग नर्तक हुए
 लय हुई देह की  भांवरी भांवरी

कांच कंचन हुआ मन वृंदावन हुआ
 पांव पायल हुई बावरी बावरी
गंधरस मेँ पगी रुप की माधुरी
भोर होते हुई पांखुरी पांखुरी

स्वर सुधा साध कर रागिनी सुरमई
द्रुत विलंबित हुई मध्यमा छुईमुई
दृश्यमय हो गए गीत गोविंद के
तार सप्तक अधर हो गए बांसुरी

सर से सरकी चुनर,धूप निखरी इधर
 भोर का छोर तज मुख हुआ दोपहर
रश्मिरथ पे चढ़ा सूर्य आगे बढ़ा
सांझ की लालिमा हो गई सांवरी

रच गई अल्पना सच हुई कल्पना
व्योम पर छा गया एक बादल घना
तूलिका हंस पड़ी रंग नर्तक हुए
 लय हुई देह की  भांवरी भांवरी

[11:48PM, 05/04/2015] jgdis Gupt

दुष्यंत दीक्षित: भाई साहब गीत का स्तर अत्याधिक उच्च है यदि आप से परिचय हटा दिया जाए और माँ गीत की चर्चा की जाए तो इसका क्या कहने जिस लय रस और बिंब का उपयोग किया है वह अद्भुत है । इसकी समीक्षा wp पर सम्भव ही नही है । तूलिका हस  पड़ी रंग नर्तक हुए लय हुई देह की भावरी ....। कवि की विचार भूमि की उड़ान सराहनीय है 12:45AM, 06/04/2015] Dusynt Dixit :



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